महाराष्ट्र राज्य बनाम राजकुमार कुंदा स्वामी
महाराष्ट्र राज्य बनाम राजकुमार कुंदा स्वामी
(2002) 104 (3) Bom LR 567
बॉम्बे उच्च न्यायालय
आपराधिक आवेदन 3522/2001
न्यायाधीश वी ताहिलरमानी के समक्ष
निर्णय दिनांक: 04 दिसंबर 2001
मामले की प्रासंगिकता: क्या उन मामलों में जमानत दी जा सकती है जब आरोपी ने सार्वजनिक धन के गबन को अंजाम देने के लिए कंप्यूटर डेटा में हेरफेर किया है?
सम्मिलित विधि और प्रावधान
- सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (धारा 43, 65, 66,73)
- भारतीय दंड संहिता, 1860 (धारा 420, 409, 463, 464, 471, 477(A))
मामले के प्रासंगिक तथ्य
- यह शिकायत अभ्युदय सहयोग बैंक लिमिटेड, वाशी शाखा, सेक्टर 17, नवी मुंबई के सहायक महाप्रबंधक श्री युवराज पाटिल ने 28 जुलाई 2001 को उसी बैंक में क्लर्क के पद पर काम कर रहे प्रतिवादी राजकुमार के. स्वामी के खिलाफ दर्ज कराई थी। वह 1997 से उक्त बैंक में कंप्यूटरों के रख-रखाव और उन्हें ठीक करने का काम देख रहा था। 1995 से बैंक में सभी खातों और लेनदेन का कम्प्यूटरीकरण कर दिया गया था।
- प्रतिवादी ने फर्जी खाते खोलकर 81 लाख रुपये तक की धोखाधड़ी की और बिना कोई राशि जमा किए, कंप्यूटरों में डेटा से छेड़छाड़ कर उक्त खातों में ऋण की प्रविष्टियों में हेराफेरी करके उसने खातों में से पैसे निकाल लिए। इस तरह उसने बैंक से धोखाधड़ी की।
अधिवक्ताओं द्वारा प्रमुख तर्क
- विद्वान अभियोजक ने प्रस्तुत किया कि प्रतिवादी सार्वजनिक निधि (public fund) के गबन के गंभीर अपराध में शामिल है और कुल राशि 2 करोड़ रुपये से अधिक है और यह उसके द्वारा अन्य बैंक कर्मचारियों से सक्रिय सहायता के बिना नहीं किया जा सकता था और इसलिए पूरे रैकेट का पता लगाने के लिए, आरोपी को हिरासत में रखकर उससे आगे की पूछताछ करने की बहुत आवश्यकता थी । इसलिए जांच अधिकारी को पुलिस हिरासत में लेकर मामले की पूरी जांच करने का उचित मौका दिया जाना चाहिए था।
- अभियोजक ने कहा कि विद्वान मजिस्ट्रेट के पास जमानत देने का अधिकार नहीं था और विशेष रूप से इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि अभियुक्तों से 26 लाख रुपये की संपत्ति बरामद की गई; यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह विश्वास करने के लिए एक उचित आधार है कि वह आईपीसी की धारा 409 के तहत उक्त अपराधों का दोषी है ।
- बचाव पक्ष के वकील ने पेश किया कि विद्वान मजिस्ट्रेट और विद्वान सत्र न्यायाधीश के आदेश पूरी तरह से न्यायोचित और कानूनी हैं । यह भी प्रस्तुत किया गया कि चूंकि पहले रिमांड की तारीख से 15 दिन की अवधि खत्म हो गई है, इसलिए आरोपी को सीआरपीसी की धारा 167 (2) के प्रावधानों के मद्देनजर हिरासत में नहीं भेजा जा सकता है ।
न्यायपीठ की राय
- पीठ ने जांच की कि आरोपी ने जनता द्वारा बैंक में निवेश किए गए सार्वजनिक धन के संबंध में विश्वास का आपराधिक उल्लंघन किया है और विद्वान मजिस्ट्रेट को आगे पुलिस हिरासत नहीं देने में गंभीर त्रुटि थी ।
- विद्वान मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश अवैध होने के अलावा बिल्कुल विकृत था । उन्हें यह महसूस करना चाहिए था कि ऐसी जल्दबाजी में पारित किये गए जमानत के आदेशों से जांच में बाधा उत्पन्न होना स्वाभाविक है जिसके परिणामस्वरूप न्याय मिलना असंभव सा लगने लगता है।
अंतिम निर्णय
- माननीय पीठ ने विद्वान मजिस्ट्रेट द्वारा प्रतिवादी को जमानत देने वाले आदेश को रद्द किया। आरोपी को निचली अदालत के समक्ष आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया गया था।
- साथ ही अगर आरोपी अदालत के समक्ष आत्मसमर्पण नहीं करता है, तो ऐसी स्थिति में जांच एजेंसी को उसे फिर से गिरफ्तार करने की अनुमति है ।
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