हरीश कुमार सी वकारिया बनाम मेसर्स इंडिया इंफोलाइन लिमिटेड
हरीश कुमार सी वकारिया बनाम मेसर्स इंडिया इंफोलाइन लिमिटेड
साइबर अपीलीय अधिकरण
अपील क्रमांक 1/2009
न्यायाधीश राजेश टंडन (अध्यक्ष) के समक्ष
निर्णय दिनांक: 26 मई 2010
मामले की प्रासंगिकता: सूचना प्रोद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 43 की प्रयोज्यता
सम्मिलित विधि और प्रावधान
- सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (धारा 43, 57)
- माध्यस्थम और सुलह अधिनियम, 1996 (धारा 8)
मामले के प्रासंगिक तथ्य
- अपीलकर्ता ने इंडिया इन्फोलाइन लिमिटेड के साथ एक ऑनलाइन डीमैट खाता खुलवाया था। 8 जनवरी 2008 को याचिकाकर्ता को ऑनलाइन ट्रेडर टर्मिनल सॉफ्टवेयर का एक्सेस भी प्रदान किया गया था।
- याचिककर्ता ने ग्रामीण विद्युतीकरण निगम (Rural Electrification Corporation) के आईपीओ के लिए ₹94,500/- का एक चेक जमा कराया था। Karvy.com ने यह प्रदर्शित किया की 12,705/- रुपयों के 121 शेयर याचिकाकर्ता को आवंटित कर दिए है और बाकी रकम बैंक में जमा कर दी गई है।
- उपर्युक्त शेयर डीमैट खाते में जमा नहीं किए गए थे। इसके अलावा एक संदेश (मैसेज) भेजा गया था कि उक्त डीमैट खाता बंद है।
- याचिककर्ता ने आरोप लगाया कि 37 दिनों के लिए खाता बंद कर दिया गया था और फिर एचयूएफ (HUF) की सही स्थिति के साथ खोल दिया गया था।
- याचिकाकर्ता के अनुसार इस अनाधिकृत रूप से खाता निलंबन करने से उन्हें कुल ₹7,233 का नुकसान हुआ।
अधिवक्ताओं द्वारा प्रमुख तर्क
प्रतिवादी के वकील ने यह दावा किया कि अधिनिर्णायक अधिकारी (गुजरात) के निर्णय को मान्यता नहीं देनी चाहिए क्योंकि माध्यस्थम और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 8 के अंतर्गत याचिकाकर्ता ने पहले से ही कार्रवाई शुरू कर दी है।
न्याय पीठ की राय
- न्यायाधीश ने आईटी एक्ट, 2000 की धारा 57 के तहत साइबर अपीलीय अधिकरण में अपील की वैधता की सावधानीपूर्वक जांच की।
- न्यायाधीश ने यह भी कहा कि आईटी एक्ट, 2000 की धारा 43 की वैधता की जांच करने से पहले दोनों पक्षों द्वारा हस्ताक्षरित ई-कॉन्ट्रैक्ट के माध्यम से उन्होंने जिन उपायों (निदानों) पर सहमति जताई है, उन्हें समझना महत्वपूर्ण है।
इसलिए, यहां एक निदान मध्यस्थता है और इसीलिए इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
अंतिम निर्णय
- कथित मामले को नए सिरे से सुनने के लिए अधिनिर्णायक अधिकारी (गुजरात) को भेजा गया।
- अधिनिर्णायक अधिकारी (गुजरात) को सीडीएल, एनएसई, बीएसई जैसे प्रतिवादियों में जोड़े जाने वाले नए पक्षों की पहचान करनी चाहिए। यह भी देखना चाहिए की माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम की धारा 8 इस मामले में मान्य है या नहीं।
निजी राय
हालांकि अपीलकर्ता द्वारा लगाए गए आरोप बहुत मजबूत है, लेकिन इस तरह के मामलों में, आवेदक के पक्ष में सबूतों की प्राप्ति बहुत मुश्किल है क्योंकि वह प्रतिवादी के सर्वर में संग्रहित है।
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