ए.पी. वाइन डीलर्स एसोसिएशन बनाम डिप्टी डायरेक्टर ऑफ़ इनकम टैक्स (इन्वेस्टीगेशन)

यश जैनCase Summary

ए.पी. वाइन डीलर्स एसोसिएशन बनाम डिप्टी डायरेक्टर ऑफ़ इनकम टैक्स (इन्वेस्टीगेशन)

ए.पी. वाइन डीलर्स एसोसिएशन बनाम डिप्टी डायरेक्टर ऑफ़ इनकम टैक्स (इन्वेस्टीगेशन)
आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय
रिट याचिका (सिविल) 6009/2005
न्यायाधीश जी. बीक्षपति और न्यायाधीश पी. नारायण के समक्ष
निर्णय दिनांक: 13 अप्रैल 2005

मामले की प्रासंगिकता: “दस्तावेज़” शब्द की परिभाषा का दायरा

मामले के प्रासंगिक तथ्य 

  • राज्य सरकार की आबकारी नीति के कुछ अंशों को बुरा बताने वाले इस न्यायालय के निर्णयों के कारण, DDIT / U-1 (2) / 2004-05 के जारी करने का मार्ग प्रशस्त हुआ, जिसे पहले याचिकाकर्ता यानी मैसर्स (M/s) ए.पी. वाइन डीलर्स एसोसिएशन, दूसरे याचिकाकर्ता M/s ट्विन सिटीज़ वाइन मर्चेंट्स एसोसिएशन, और अन्य दो- श्री पायलता रमेश बाबू और श्री अरावपल्ली लक्ष्मीनारायण द्वारा चुनौती दी गई। पहले प्रतिवादी आयकर (जांच), यूनिट 1(2), हैदराबाद के उप निदेशक हैं, दूसरे प्रतिवादी आंध्र प्रदेश सरकार के निषेध और आबकारी आयुक्त हैं।
  • प्रतिवादी क्रमांक 3 से 26 आंध्र प्रदेश राज्य में निषेध और आबकारी अधीक्षक हैं।
  • यह प्रार्थना एक परमादेश की रिट के लिए है। प्रथम प्रतिवादी ने आंध्र प्रदेश के सभी निषेध और उत्पाद शुल्क अधीक्षकों को आदेश दिया है कि विभिन्न आवेदकों द्वारा प्रस्तुत डिमांड ड्राफ्ट्स को 24 घंटो के अंदर पेश किया जाए। यह 24 घंटो की अवधि इस न्यायालय में लंबित रिट याचिका में निर्णय आने के साथ शुरू हो जाएगी। यह परमादेश की रिट के माध्यम से इस आदेश को ग़ैर कानूनी, मनमाना, और प्रथम प्रतिवादी को प्रदान की गई शक्तियों के बहार होने की प्रार्थना की गई है। याचिकाकर्ता ने यह भी प्रार्थना करी है कि निषेध और उत्पाद शुल्क अधीक्षकों को निर्देश दिया जाए की वे आवेदकों द्वारा दिए गए डिमांड ड्राफ़्ट्स को लौटाए।

अधिवक्ताओं द्वारा प्रमुख तर्क

  • याचिकाकर्ताओं ने कोर्ट के समक्ष दोहराया कि वो वाइन डीलर्स एसोसिएशन के सदस्यों के सामान्य मुद्दों को प्रस्तुत करना चाहतें है। यह मुद्दें प्रथम प्रतिवादी के द्वारा शुरू करी गई प्रक्रिया, उनकी शक्तियाँ, और अधिकार क्षेत्र से जुड़े हुए है। डिमांड ड्राफ्ट एक तरह का वर्चुअल मनी है और “दस्तावेज़” की परिभाषा के बहार है। इसके बाद याचिकाकर्ताओं की और से तर्क दिया गया की सुने जाने के अधिकार (locus standi) पर पारम्परिक दृश्य बदल चूका है और याचिकाकर्ताओं को उनके अधिकारों से वंचित नहीं रखा जा सकता है।
  • इसके बाद उन्होंने “दस्तावेज़” और “परक्राम्य लिखत” की परिभाषाओं की चर्चा करी और साथ ही बैंकिंग संस्थानों, और आबकारी विभाग की प्रक्रिया, और आयकर विभाग की शक्तिओं के बारे में विस्तृत रूप से बताया। जब पक्षपातपूर्ण कार्रवाई की शुरुआत हो, तब वाइन डीलर्स एसोसिएशन के पास अपने सदस्यों की ओर से पक्ष रखने का अधिकार है। अतः, इस याचिका को ख़ारिज नहीं किया जा सकता है।
  • आयकर विभाग की ओर से याचिकाकर्ताओं के सुने जाने के अधिकार (locus standi) पर आपत्ति जताई, और अदालत को बताया गया की कार्रवाई के कारण अलग अलग है और हर आवेदक को निर्धारित अदालत के सामने अपनी शिकायत निवारण के लिए जाना चाहिए। फिर विभाग की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता ने प्रस्तुत किया कि यह याचिका किसी भी तरह से जनहित याचिका (PIL) नहीं है और इसके पीछे कुछ बेईमान व्यक्तियों की संपत्ति छुपाने का प्रयास किया जा रहा है। बड़े पैमाने पर हो रही धोखा धड़ी को रोकने के लिए विभाग ने यह आदेश जारी किया था जिससे भारी मात्रा में हो रहे मौद्रिक व्यवहार पर कार्यवाही करी जा सकें।
  • इसके बाद आयकर विभाग की ओर से तर्क किया गया की अगर जाँच के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण सामग्री आवेदकों को वापस कर दी जाती है, ऐसी परिस्थति में जाँच पूरी नहीं हो सकेगी। राजकोष की सुरक्षा अत्यधिक महत्वपूर्ण है और डिमांड ड्राफ्ट्स का गैर-उत्पादन निश्चित रूप से इस हित को खतरें में डाल देगा। इस तथ्य के प्रकाश में यह स्पष्ट है की याचिकाकर्ताओं ने स्वच्छ हाथों से अदालत के दरवाजा नहीं खटखटाया है और उनकी प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

न्यायपीठ की राय

  • डिमांड ड्राफ्ट एक तरह का दस्तावेज़ है और परक्राम्य लिखत का भी उदहारण भी है। परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 के अंतर्गत डिमांड ड्राफ्ट की मान्यता होने से उसके दस्तावेज़ होने पर कोई फ़र्क पड़ता है। आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 131(1) के लिए डिमांड ड्राफ्ट का दस्तावेज़ होने काफी है। धारा 2(22AA) में दी गई परिभाषा के मुताबिक दस्तावेज़ की परिभाषा में इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड भी आते है।

अंतिम निर्णय

  • सभी संबंधित आबकारी अधीक्षकों को दो सप्ताह की अवधि के भीतर सभी आवेदकों को डिमांड ड्राफ्ट वापस करने की दिशा के साथ याचिका को अनुमति दी जाती है। सरकारी खजाने के हित में यह अदालत लागत के अनुसार कोई आदेश नहीं देती है।

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